हिमालय की ऊँची चोटियों के बीच, जहाँ बादल धरती को चूमते हैं और हवा में सन्नाटे की सनसनाहट गूँजती है, एक छोटा-सा गाँव बसा था शिवपुर। इस गाँव में दो दोस्तों की कहानी शुरू हुई, जिनका नाम था राघव और काव्या। राघव एक साधारण किसान का बेटा था, जिसके सपने आसमान से भी ऊँचे थे, और काव्या एक चित्रकार थी, जो प्रकृति के हर रंग को अपने कैनवास पर उतार देती थी। दोनों की दोस्ती बचपन से शुरू हुई थी, जब राघव ने काव्या को एक जंगली भालू से बचाया था। उस दिन से दोनों का रिश्ता अटूट हो गया!
शिवपुर में सर्दियों की एक सुबह, जब कोहरा इतना घना था कि हाथ को हाथ न दिखाई दे, राघव और काव्या एक पुराने बरगद के पेड़ के नीचे बैठे थे। काव्या ने अपने छोटे-से कागज़ पर पहाड़ों का चित्र बनाया और राघव को दिखाया। "देख, राघव, ये पहाड़ हमारी तरह हैं !मज़बूत और हमेशा साथ," उसने मुस्कुराते हुए कहा। राघव ने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, लेकिन पहाड़ तो हिलते नहीं, हम तो चलते हैं, काव्या। एक दिन हम इस गाँव से बाहर जाएँगे, दुनिया देखेंगे।" उस दिन दोनों ने एक वादा किया !चाहे कुछ भी हो, वे कभी एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगे।
समय बीतता गया, और दोनों बड़े हुए। राघव ने खेती में अपने पिता की मदद शुरू की, लेकिन उसका मन हमेशा कुछ बड़ा करने में अटका रहता था। काव्या ने अपनी कला को निखारा और गाँव में उसकी बनाई पेंटिंग्स की चर्चा होने लगी। लेकिन एक दिन गाँव में सूखा पड़ा। फसलें सूख गईं, और राघव के परिवार पर कर्ज़ बढ़ता गया। काव्या ने अपनी पेंटिंग्स बेचकर कुछ पैसे जुटाए और राघव को दिए। राघव ने मना किया, लेकिन काव्या ने कहा, "तेरा दुख मेरा दुख है, राघव। दोस्ती में हिसाब नहीं होता।" उस दिन राघव की आँखों में आँसू थे, और उसने मन ही मन ठान लिया कि वह काव्या के इस एहसान को कभी नहीं भूलेगा।
सूखे के बाद राघव ने फैसला किया कि वह गाँव छोड़कर शहर जाएगा, कुछ काम ढूंढेगा। काव्या ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन राघव का इरादा पक्का था। जाने से पहले उसने काव्या से कहा, "मैं लौटूँगा, और जब लौटूँगा, तो तेरे लिए वो दुनिया लाऊँगा जो हमने सपनों में देखी थी।" काव्या ने उसे एक छोटा-सा चित्र दिया—दो पहाड़ों के बीच एक सूरज उगता हुआ। "ये रख, राघव। जब भी उदास होना, इसे देखना। हमारा सूरज हमेशा उगेगा।"
राघव दिल्ली पहुँचा। वहाँ की चकाचौंध और भागदौड़ ने उसे चौंका दिया। उसने एक फैक्ट्री में मज़दूरी शुरू की। दिन-रात मेहनत के बाद भी पैसे कम पड़ते थे। कई बार उसे भूखे सोना पड़ा, लेकिन वह काव्या का चित्र हर रात देखता और हिम्मत जुटाता। उधर, काव्या गाँव में अपनी कला के ज़रिए लोगों की मदद करने लगी। उसने बच्चों को मुफ्त में चित्रकारी सिखानी शुरू की, और उसकी पेंटिंग्स अब दूर-दूर तक बिकने लगीं।
एक दिन राघव को फैक्ट्री में चोट लग गई। उसका हाथ टूट गया, और काम छूट गया। वह टूट सा गया था। उसने काव्या को चिट्ठी लिखी, "शायद मैं वो नहीं कर पाऊँगा जो मैंने सोचा था।" काव्या ने जवाब में लिखा, "तू हारा नहीं, राघव। मैं आ रही हूँ।" और सचमुच, काव्या ने अपनी सारी कमाई लेकर दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली।
दिल्ली में काव्या ने राघव को ढूंढा। उसे एक छोटे-से कमरे में पाया, जहाँ वह अकेला और उदास बैठा था। काव्या ने उसे गले लगाया और कहा, "हम साथ हैं, राघव। अब हारने का सवाल ही नहीं।" काव्या ने अपनी पेंटिंग्स की एक प्रदर्शनी लगाई, और राघव ने उसकी मदद की। प्रदर्शनी हिट रही। एक बड़े व्यापारी ने काव्या की कला को देखा और उसे विदेश में प्रदर्शनी का मौका दिया। लेकिन काव्या ने कहा, मैं अकेले नहीं जाऊँगी। मेरा दोस्त मेरे साथ जाएगा।
राघव और काव्या ने मिलकर विदेश का सफ़र शुरू किया। वहाँ उनकी कला और मेहनत ने सबका दिल जीत लिया। राघव ने भी अपने सपनों को नया रूप दिया—उसने एक छोटा-सा व्यवसाय शुरू किया, जो हिमालयी जड़ी-बूटियों को दुनिया तक पहुँचाता था। दोनों ने मिलकर कमाया हुआ पैसा शिवपुर में लगाया। गाँव में स्कूल खुला, पानी की व्यवस्था हुई, और लोगों के चेहरों पर मुस्कान लौटी।
सालों बाद, जब राघव और काव्या बूढ़े हो गए, वे फिर उसी बरगद के पेड़ के नीचे बैठे। काव्या ने कहा, "देखा, राघव, हमने वो सूरज उगा ही दिया।" राघव ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "नहीं, काव्या, तू मेरा सूरज थी। तेरे बिना ये सफ़र अधूरा रहता।" दोनों हँसे, और हवा में उनकी दोस्ती की गूँज फैल गई।
उनकी मृत्यु के बाद भी शिवपुर में उनकी कहानी गाई जाती थी। लोग कहते थे कि दोस्ती का मतलब समझना हो, तो राघव और काव्या की कहानी सुनो। उनका सफ़र खत्म नहीं हुआ था वह हर उस इंसान में ज़िंदा था, जो अपने दोस्त के लिए कुछ भी करने को तैयार हो !
